Visit blogadda.com to discover Indian blogs कठफोड़वा: दिसंबर 2009

लौट आओ बचपन

साहित्यिक जगत में 'बचपन' की सेंकडों परिभाषाएं मिल जाएँगी। हर तरह की कहानियाँ, उनके लिए, और उनके बारे में लिखी गई हैं पर कुछ किरदार अपनी सरलता और मन के भोलेपन से एक पाठक का दिल जीत लेते हैं। वह अपना एक स्थान बना लेते हैं जिससे की एक पिता अपनी पुत्री में 'लाली', या एक माँ अपने पुत्र में 'ईदगाह' के उस बालक को ताकती है जो अपने लिए सोचने से पहले उसके लिए सोचेगा।

पर क्या सत्य सच-मुच साहित्य से परे है? क्या आज भी 'बचपन' अपने बचपन की सभी भावनाओं को सहेज कर रख पाया है? कई बार अंग्रेज़ी मेंलॉस ऑफ़ इन्नोसेंसका प्रयोग होता है, अर्थातमासूमियत का खो जाना ऐसा कहते हैं, की आज कल के हाई-टेक बच्चे अपना बचपन खो चुके हैं उम्र से पहले ही उन्हें बड़ा कर दिया गया।

हम सब पर एक अजब सा जादुई चश्मा चढ़ गया है जिसके चलते हम अपने बच्चों में अब लिटिल चेम्प्स, इंडियन आइडल, कॉमेडी किंग और जाने कौनसे किरदारों को तलाशते हैं अब कोई माँ अपने बालक को ईदगाह के पात्रो सा नहीं चाहती क्यूंकि उससे उसका बालक बाकियों से पिछड़ जाएगा। हमारी आशाओं के माप दंड बदल गए हैं।

और एक बहुत बड़ा कारण है हमारा साहित्य से दूर होजाना ।आज भी हमें ऐसे कई व्यक्ति मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीवन में पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अलावा किताबो को हाथ नहीं लगाया। वह इसमें गर्व महसूस करते हैं की उन्होंने कुछ पढा नहीं है। में नहीं समझती की इन सब के लिए आधुनिकता को कोसना सही है।

हाँ आधुनिकता ने हमें सुविधाएं दी पर सुविधाएं हम पर थोपी नहीं। पहले विकल्प नहीं थे जानकारी पानी के इसलिए पुस्तक और लिखित शब्द पवित्रता अविवाद्य थी।

आज हमारी कल्पना रहमत (काबुलीवाला) के भाँती ठहर गई है। रहमत के लिए मिनी दस साल बाद भी एक बच्ची ही थी। वैसे ही कहीं मैं आज भी इनके बचपन में अपना बचपन खोज रही हूँ वही बचपन जो रोज़ नई कहानिया पढ़ कर एक नई दुनिया में रम जाता था।

आज का बचपन पंचतंत्र, जातक कथाएँ या अकबर बीरबल के किस्से सब चीज़ों ने टीवी/ कार्टून आदि के मध्यम से देखता है। इससे उनकी काल्पनिक योग्यता क्षीण होती जा रही है।

आज कल किसी और की कल्पना से बने भीम, राम, लक्ष्मन, हनुमान हमारे सामने कर कहानिया पेश करते थेआज मेरे मान में जो टनल रामन बस्ता वोह बिलकुल वैसा ही है जैसा आपके। जबकि पहले हर बच्चे के मन में इन्ही पात्रों की एक अलग छवि बस्ती थी


हर्री पोट्टर जैसी किताबें इस को उभरने की कोशिश करते हैं । पर जब इन्ही पर सिनेमा की नज़र लग जाती है। फिर से वही दूरियां आजाती हैं। हम किरदारों की किसी और की नज़र से देखते हैं।

वास्तविकता और कल्पना का समागम साहित्य के पन्नो में जरूर अपनी जगह बना रह है। पर क्या यह बचपन के बचपने को कहीं गुम होने पर मजबूर कर रहा हैहमें एक नया रास्ता खोजना होगा जिससे की इस दोराहे को हम एक साथ एक पथ पर जोड़ सके. समय के साथ चलने में कोई बुराई नहीं है. पर समय से पहलने बदलने में कैसी समझदारी?

यह सिर्फ एक सोच है जिसको में उन सभी लोगों तक पहुँचाना चाहती हूँ जो बच्चों को सिर्फ अपना ही एक छोटा रूप समझते हैं. रोलैंड बार्थ के एक निबंध में इस बात को बहुत ही गंभीरता से दर्शाया गया है. उनका कहना है की खिलौने भी बच्चों के नज़रिए से बनने बंद हो गए हैं. वह केवल वही चीज़ें हैं जिन्हे हम चाहते है की बच्चे पसंद करें. अगर हमें जंग/ लड़ाई अच्छी लगती है तोह एक बन्दुक हमारे लिए बाचे के खिलौने का रूप ले लेती है. तो चाहे वह सिर्फ एक फटे टायेर की ट्यूब और डंडे से ही खुश हो. हम उसे वही खिलौना ला कर देंगे जो की हमारी नज़रों में उसके लिए ठीक है.

में जानती हूँ की हर माँ बाप बच्चे की भलाई चाहता है. पर कहीं कहीं हम उन पर वह चीज़ें थोपना चाहते हैं जो की हम नहीं कर पाए या फिर हम चाहते थे की हम करें. अपने सपने बच्चों की नज़रों से देखने में कोई बुराई नहीं है. बस यह ध्यान रहे की कहीं उस बीच हम उनके सपने ना तोड़ दे.

जिन्हें राष्ट्रपति ने गुण्डे कहा अखबार ने उन्हें शहीद कहा

6 दिसंबर बीत गया लेकिन बहुत से जख्मों को कुरेद गया। अखबारों में छपी खबरों को देखकर यह साफ हो गया कि सांप्रदायिक ताकतों ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर कब्जा कर लिया है।

याद होगा जब 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद की गई थी तब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा ने बाबरी मस्जिद गिराने वालों को 'गुण्डे' कहा था। लेकिन 6 दिसंबर 2009 के एक अखबार ने जो गांधी जी के समय से कांग्रेस समर्थित अखबार कहा जाता है, इन गुण्डों के लिए 'शहीद' शब्द का प्रयोग किया है। ऐसा तब है जब यही अखबार बाबरी मस्जिद शहीद किए जाने की निन्दा भी कर रहा है। बाबरी मस्जिद गिराने वाले गुण्डों को शहीद कहना इस देश पर मर मिटने वाले देशभक्त शहीदों का अपमान है।

वैसे तो लगभग हर अखबार ने बाबरी मस्जिद के लिए 'विवादित ढांचा' शब्द का प्रयोग किया है। मीडिया इस विषय में स्वयंभू जज बन गया है। सवाल यह है कि ढांचा विवादित कैसे हो गया? विवादित तो वह तथाकथित मंदिर है जिसने अपने निर्माण से पहले ही हजारों बेगुनाह इंसानों की बलि ले ली है और जहां बिना प्राण प्रतिष्ठा के मूर्तियों की पूजा होने लगी है।

काश वो कुहरा ही होता ..............!!

साथियों

यह कविता मैंने विगत वर्ष लिखी थी लेकिन आज गैस काण्ड की २५ वी बरसी पर आपके बीच मैं रख रहा हूँ |


वो भ्रम ही तो था
उस धुंध को चंद तो कुहरा ही समझ बैठे थे
पर वह कुहरा नहीं था
वह तो जिन्दगी और मौत के बीच की धुंध थी


काश वो कुहरा ही होता ..............!!

आज तक बहता है आंखों से पानी
मोमबत्ती की रोशनी भी नहीं पी पाती हैं, ये आंखें
शोपीस से पैदा होते हैं बच्चे
लाखों आंखों में ऐनक हैं
जिनमें रह-रह कर दिखती हैं, 3 दिसंबर की काली रात
काश वो कुहरा ही होता .............. !!


खेल चल रहा है, कंपनी और सरकारों के बीच
त्रासद तो यह है कि
हम जान की बाजी लगाकर भी दर्शक ही रहे
नहीं बन पाये हिस्सा, इस खेल का
त्रासद तो यह भी है कि, हम अभी भी कुहरे में ही जी रहे है !!